काग़ज कलम
जब भी मन में गुबार आया।
या कोई भी विचार आया।
कागज कलम दवात उठाई।
मन भावों को संजोती चली।
कहीं किसी ने हद पार करदी
लांघ गए दर कदम मर्यादित।
किसने लगाए सवालिया निशान।
मन व्यथित जब बहुत हो गया।
तो कागज-कलम ही साथी बन गए।
सौदामिनी गरज-गरज के भड़के।
दूर कहीं एक अबला सिसके,
क्षुब्ध हो गई आसमानी शक्ति,
बादल उमड़-घुमड़ संग रोए,
दामन तार-तार हुआ है,
एक नहीं बार-बार हुआ है,
भेड़िए मौका देखके आए,
तन को नोंचा और खसोटा,
आत्मा को छलनी कर छोड़ा,
कलम हाथ से छूटी कागज पर,
रो-रोकर आँसू लिखती गई।
समाज का दोगलापन देखा,
नर-नारी भेदभाव भी देखा।
नियमों में पक्षपात बहुत है,
सहती जाए तो संस्कारी है,
आवाज उठाए तो मुँह फट बद्तमीज!
दर लांघ जाए तो बदचलनी है,
अपनी कालिख नारी के सर,
पुरुष बनाए तमगे नारी के,
लड़खड़ाती जुबां सहम गई,
असहनीय परबसता के बस,
"श्री" एक सहारा कलम बन गई।
स्वरचित-सरिता श्रीवास्तव "श्री"
धौलपुर (राजस्थान)
Gunjan Kamal
16-Sep-2023 10:34 PM
👏👌
Reply
Varsha_Upadhyay
16-Sep-2023 09:04 PM
Nice 👌
Reply
Shashank मणि Yadava 'सनम'
16-Sep-2023 10:26 AM
बेहतरीन अभिव्यक्ति
Reply